दक्षिण कोरिया में 1980 के दशक में ऐसा ही एक नाटकीय और ऐतिहासिक मोड़ आया, जब देश के शांतिपूर्ण नागरिक संघर्ष को एक सैन्य तख्तापलट ने बदल दिया। आज हम बात करेंगे दक्षिण कोरिया के मार्शल लॉ की, एक ऐसी घटना जिसने न केवल देश के राजनीति को झकझोर दिया, बल्कि लोकतंत्र की कीमत और इसके लिए होने वाले संघर्षों को भी उजागर किया।
यह कैसे हुआ: घटनाओं की सिलसिला
1979 में, दक्षिण कोरिया के लोकप्रिय राष्ट्रपति पार्क चुंग-ही की हत्या के बाद, देश में राजनीतिक अस्थिरता फैल गई। यह स्थिति जैसे ही बिगड़ी, जनरल चोन डू-ह्वान ने सेना के बल पर सत्ता पर कब्जा कर लिया। लेकिन, यह सत्ता विरोधी आंदोलन और लोकतांत्रिक बदलाव के संकेत भी दे रही थी। देश में छात्र आंदोलनों और नागरिक विरोध प्रदर्शन तेजी से बढ़ रहे थे। लोग लोकतंत्र की वापसी के लिए आवाज उठा रहे थे, और तभी आया मार्शल लॉ —क्योंकि सेना को लगा कि यह सब बस नहीं रुकने वाला!
ग्वांगजू विद्रोह: लोकतंत्र के लिए बगावत
यह सब एक छोटे से शहर ग्वांगजू से शुरू हुआ। मई 1980 में, जब सेना ने मार्शल लॉ लागू किया, तो नागरिकों ने इसका विरोध किया। छात्रों ने लोकतंत्र की मांग को लेकर सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया। जैसे ही विरोध बढ़ा, सेना ने भारी बल प्रयोग किया और प्रदर्शनकारियों पर बर्बर तरीके से हमला किया। यह विरोध ग्वांगजू विद्रोह बन गया, और इसे ग्वांगजू नरसंहार के नाम से जाना गया।
क्या हुआ जब सेना ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाईं?
यह दृश्य दिल दहला देने वाला था। हजारों नागरिकों को गिरफ्तार किया गया, सैकड़ों की जानें गईं, लेकिन सरकार ने इन मौतों को छुपाए रखा। ग्वांगजू की सड़कों पर लाशों का ढेर लग गया, लेकिन तब भी नागरिकों ने हार नहीं मानी। उनका संदेश था साफ – लोकतंत्र चाहिए।
मार्शल लॉ का प्रभाव: लोकतंत्र पर गहरी चोट
दूसरे देशों में क्या होता है जब सेना सत्ता में आती है?आमतौर पर, लोग डर और दमन का शिकार हो जाते हैं, और यही हुआ दक्षिण कोरिया में भी। मार्शल लॉ लागू होते ही:
– मीडिया पर कड़ी सेंसरशिप: सरकारी आलोचना बंद हो गई। प्रेस की स्वतंत्रता को पूरी तरह कुचल दिया गया।
– राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी: प्रमुख लोकतांत्रिक नेताओं और छात्रों को जेल में डाला गया। यह एक अंधेरा समय था।
– राजनीतिक असंतोष पर शिकंजा: लोकतांत्रिक अधिकारों को पूरी तरह से दबा दिया गया। सैन्य शासन के सामने सभी को चुप रहना पड़ा।
फिर क्या हुआ? लोकतंत्र की बहाली: जीत का क्षण
यह घटना सिर्फ काले अध्याय की तरह नहीं रह सकती थी। दक्षिण कोरिया के लोग हार मानने वाले नहीं थे। 1987 तक, जनता ने विरोध जारी रखा। संगठित लोकतांत्रिक आंदोलन ने दबाव बनाया और सैन्य सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर किया। जनरल चोन डू-ह्वान को आखिरकार सत्ता से हटना पड़ा और लोकतांत्रिक चुनावों का आयोजन हुआ।
1987 में, दक्षिण कोरिया में लोकतांत्रिक चुनाव हुए, और इसने नए संविधान की राह खोली। यही वह समय था जब लोकतांत्रिक अधिकार फिर से बहाल हुए और ग्वांगजू विद्रोह ने उसे मजबूत किया। लोग अब अपनी पसंद से नेतृत्व चुनने में सक्षम थे, और यह कदम लोकतंत्र की ओर था।
लॉ के अंत और लोकतंत्र की वापसी के बाद, दक्षिण कोरिया ने राजनीतिक स्थिरता की ओर कदम बढ़ाए। 1980 के दशक का वह अंधेरा दौर अब केवल एक इतिहास बन चुका था, लेकिन इसका लोकतांत्रिक संघर्ष आज भी दक्षिण कोरिया के समाज का हिस्सा है।
ग्वांगजू विद्रोह की याद आज भी ज़िंदा है। प्रत्येक साल, 18 मई को ग्वांगजू डेमोक्रेसी फेस्टिवल मनाया जाता है, जो लोकतंत्र की लड़ाई का प्रतीक है। यह दिन है जब लोग याद करते हैं उन बहादुर नागरिकों और छात्रों को जिन्होंने अपनी जान की कीमत पर लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया।
लोकतंत्र की कीमत
दक्षिण कोरिया में मार्शल लॉ एक कड़ा संघर्ष था, लेकिन यह दिखाता है कि लोकतंत्र की कीमत कितनी बड़ी हो सकती है। लोकतांत्रिक बदलाव कभी आसान नहीं होता, लेकिन जब लोग एकजुट होते हैं और सैन्य शासन के खिलाफ खड़े होते हैं, तो अंततः सत्ता उनके पास आती है। आज, दक्षिण कोरिया एक स्थिर लोकतंत्र के रूप में अपनी पहचान बना चुका है, और यह ग्वांगजू विद्रोह और 1980 के संघर्षों के परिणामस्वरूप संभव हुआ।
यह कहानी हमें यह याद दिलाती है कि लोकतंत्र के लिए संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता —कभी भी, कहीं भी। और यह उन बहादुर नागरिकों और छात्रों की बहादुरी की कहानी है जिन्होंने ग्वांगजू में अपनी जान गंवाकर भी लोकतंत्र की जंग जीतने की राह दिखाई।
-कार्तिक